रूहानियत में जड़ें
अनंत मूल्यों की दिशा में।
परम संत गुरबख्श सिंह जी
(मैनेजर साहिब जी)
संस्थापक — डेरा जगमालवाली (1966 – 1998)
परम संत गुरबख्श सिंह जी, जिन्हें प्रेमपूर्वक मैनेजर साहिब जी के नाम से जाना जाता है, सन 1966 में डेरा जगमालवाली की स्थापना की।
वे आत्मबोध के मार्ग के प्रति पूर्णतः समर्पित थे — उनका जीवन विनम्रता, रूहानी शक्ति, और परमात्मा पर एकाग्रता का साक्षात उदाहरण था।
उनकी शिक्षाओं का केंद्र था:
सिमरन (भीतर के नाम का ध्यान),
सदाचार पूर्ण जीवन,
और दुनियावी विकर्षणों से वैराग्य।
मैनेजर साहिब जी ने डेरा की आध्यात्मिक नींव रखी एक ऐसा पवित्र स्थल जहाँ साधक अनुशासन और भक्ति के माध्यम से जीवित गुरु की कृपा से सत्य की खोज कर सकें।


बहादुर चंद (वकील साहिब) जी
आध्यात्मिक उत्तराधिकारी (1998 – 2024)
1998 में मैनेजर साहिब जी के शब्द रूप में विलीन होने के पश्चात,
परम संत बहादुर चंद (वकील साहिब) जी ने डेरा जगमालवाली की आध्यात्मिक जिम्मेदारी संभाली।
उन्होंने लगभग तीन दशकों तक निस्वार्थ सेवा, सरलता, समर्पण और दृढ़ता के साथ संगत का मार्गदर्शन किया। उनकी पहचान एक सत्यनिष्ठ, शांत और धरातल से जुड़े हुए गुरु के रूप में रही, जिन्होंने सदा सदाचार, नित्य सिमरन और निस्वार्थ सेवा को आध्यात्मिक जीवन के मूल स्तंभ बताया।
उनके नेतृत्व में रूहानियत की शुद्धता बनी रही और साधकों को निरंतर आत्मिक संबल व मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा। उनका जीवन पूर्ण समर्पण और रूहानी स्थिरता का प्रतीक रहा और जो भी उनके संग चले, उनके हृदय में वे सदा के लिए सम्मान और श्रद्धा से बसे रहे।
महाराज बीरेंद्र सिंह जी
वर्तमान आध्यात्मिक गुरु (2024 – वर्तमान)
पूज्य बहादुर चंद जी की पंजीकृत वसीयत के अनुसार, महाराज बीरेंद्र सिंह जी को डेरा जगमालवाली की आध्यात्मिक गद्दी सौंपी गई।
उन्होंने अपने पूज्य पूर्वगुरुओं की रूहानी परंपरा को अनुशासन, समर्पण, और परमात्मा के प्रति गहरे प्रेम के साथ आगे बढ़ाया है।
उनकी उपस्थिति और स्नेहमयी प्रेरणा साधकों को नियमित सिमरन, सत्संग में भागीदारी, निस्वार्थ सेवा और अंतरमुखी, सच्चे जीवन के मार्ग पर दृढ़ बनाए रखती है।
महाराज जी, करुणा और स्पष्टता के साथ साधकों को नामदान (आध्यात्मिक दीक्षा) प्रदान करते हैं और निरंतर मार्गदर्शन देते हैं जो जीवंत रूहानी शिक्षाओं का प्रतिबिंब है।
उनका नेतृत्व उस दीर्घकालिक गुरु परंपरा का प्रतीक है जो बाहरी स्वरूप से नहीं, बल्कि भीतर के सत्य और साधक की सच्ची खोज से पहचानी जाती है।
